प्रेमचंद के “राम” – हिमांशु धूलिया
प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के स्तम्भ हैं । मैं उनके योगदान की प्रशंसा ही नहीं बल्कि उनके प्रति मेरी असीम श्रद्धा है । जब भी मुझे सवालों के जवाब ढूँढने होते हैं मैं प्रेमचंद की कहानियों के पास चला जाता हूँ; और चाहे सवाल के जवाब न भी मिलें एक सुकून ज़रूर मिलता है ।
जब सांप्रदायिकता बढ़ती है तो मैं ‘ पंच परमेश्वर ‘ की सलाह लेता हूँ ; जब किसान आत्म हत्या करते हैं तो मैं – ‘गौदान’ , ‘सवा सेर’ गेहूं , और कई किसान कष्ट संबन्धित कहानियाँ का सहारा लेता हूँ । जब भाई – भाई असहमत होते हैं तो मैं ‘बड़े भाई साहब’ पढ़ लेता हूँ । विषय और भी हैं पर मूल प्रश्न है की प्रेमचंद ने इंसानी मानसिकता को करीबी से परखा और उसे कहानियों का रूप देकर समाज को समर्पित किया ।
इसी संदर्भ में हाल के राममंदिर के भूमि- पूजन की खबर और तस्वीरें देख कर लोगों में एक उत्साह , उमंग , खुशी देखकर न जाने कैसे मुझे ‘प्रेमचंद ‘ की एक छोटी कहानी ‘ रामलीला ‘ की याद आ गयी । जब भी इस कहानी को पढ़ता हूँ आँखों में आँसू आ जाते हैं ।
कहानी एक बालक की रामजी के प्रति सच्ची श्रद्धा की कहानी है । संक्षेप में कहानी कुछ इस तरह है :
एक बालक हर वर्ष अपने कस्बे की रामलीला के मुख्य पात्र – राम , लक्ष्मण , सीता की श्रिंगार और अन्य व्यवस्थाओं में मदद करता है । जब दिन में पात्रों को तैयार किया जाता है तो वह भी बढ़ – चढ़ कर भाग लेता है । उन्हें अपने हिस्से के चीज़ें लाकर खिलाता है , खास कर रामजी के प्रति उसका गहरा स्नेह है । अचरज की बात यह है कि राम जी उसी के स्कूल में नीची कक्षा में पढ़ते हैं ; बार बार फ़ेल होने के कारण; और वह उनकी पढ़ाई में मदद भी करता है । राम लीला के समय जब रोज़ विमान निकलता है तो वह उनके साथ पीछे बैठता है और गर्व का अनुभव करता है । कहानी में ‘प्रेमचंद’ जी लिखते हैं :
“ मैं दोपहर से ही वहाँ जा बैठता और जिस उत्साह से दौड़ दौड़ कर छोटे मोटे काम करता उस उत्साह से आज अपनी पेंशन लेने भी नहीं जाता …..इन तैयारियों के बाद विमान निकलता , तो उस पर राम चन्द्र जी के पीछे बैठकर मुझे जो उल्लास , जो गर्व , जो रोमांच होता , वह लाट साहब के दरबार में कुर्सी में बैठकर भी नहीं होता था । “
फिर ‘रामलीला’ समाप्त हो जाती है और ‘राजगद्दी’ शेष रहती है पर न जाने क्यों टलती जाती है । पता चलता है कि जमींदार साहब इस बार चंदा कम आने से खुश नहीं थे । राम चन्द्र जी को भी कोई पूछता नहीं था , खाने का भी इंतजाम ठीक नहीं था , वह बालक ही कुछ कुछ लाकर खिलाता था । खैर पैसे इकट्ठा करने के लिए , एक वैश्या को बुलाया जाता है । उसके पहले राजगद्दी होती है , जिसमें सब आरती में पैसे डालते हैं पर बालक के पिता पुलिस दारोगा होने के नाते मुफ्त मैं आरती लेते हैं और थाली मैं कुछ न नहीं डालते । बच्चा शर्मिंदा होता है पिता के इस व्यवहार देख और और अपनी एक रूपय कि अमानत आरती मैं डालता है यह जानकार भी कि आरती का पैसा जमींदार के पास जाएगा । वैश्या का नाच होता है और जमींदार और उसके बीच सौदा कि जो पैसे लोग नाच में देंगे उसमे से आधा- आधा दोनों का । बालक के पिता अपनी शेख़ी में और लोगों को गलत साबित करने के लिए वैश्या को एक अशर्फी देते हैं जबकि बालक सोचता है के वो उसको दुत्कार देंगे । रात भर नाच चलता है और सुबह जब राम जी की बिदाइ होती है तो जमींदार उन्हें कुछ भी पैसे नहीं देता जबकि दस्तूर के मुताबिक देना चाहिए था , यहाँ तक की रास्ते का खर्चा तक नहीं देता यह कह की इस बार चंदा बहुत कम हुआ , घाटा हुआ है , बाद में आना । कपड़े , चढावा कुछ नहीं । तीनों पात्र रूआँसे हुआ खड़े थे । बालक दौड़ कर अपने पिता से पैसे मांगता है , हालात समझता है पर वो भी कुछ नहीं देते और अपनी घोड़ी पर सवार बच्चे को पढ़ने की नसीहत दे चल देते हैं । उसी समय से वह अपने पिता से घृड़ा करने लगता है और वो जो कहते हैं उसके विपरीत करता है; आगे चल कर । पर उस समय वह घर जाकर अपनी बची अमानत के दो आने ले आता है और शर्माते हुए रामजी के हाथों में दे देता है । रामजी प्रसन्न हो जाते हैं की कम से कम रास्ते का खर्चा तो मिला । वह तीनों को कस्बे के बाहर तक छोड़ने जाता है ; और कोई नहीं पूरे गाँव से । प्रेमचंद जी लिखते हैं :
“दो आने पैसे लेकर तीनों मूर्तियाँ बिदा हुईं ; केवल मैं ही उनके साथ कस्बे के बाहर तक पहुँचने आया । उन्हें बिदा करके लौटा तो मेरी आँखें सजल थीं पर हृदय आनंद से उमड़ा हुआ था ।“
कहानी सुनकर यह लगता है की राम के पीछे इस भीड़ में सच्चे श्रद्धालु गिने चुने होते हैं । ज़्यादातर राम के सहारे अपना स्वार्थ पूरा करते हैं – जमींदार वैश्या का नाच करवा कर , आरती करवाकर पैसे वसूल ता है । कई अधिकारी और इज़्ज़तदार व्यक्ति सिर्फ चमक , धमक और वैश्या नृत्य का आनंद लेते हैं ।
सिर्फ एक बालक अपनी सच्ची आस्था प्रकट करता है ।
-हिमांशु धूलिया