संपादकीय

कर्मभूमि का इतिहास

साप्ताहिक ‘ कर्मभूमि ‘ की स्थापना 19 फरवरी , बसंत पंचमी के दिन , सन 1939 मे , लेंसडाउन, पौड़ी गढ़वाल में हुई। ‘ कर्म भूमि ‘ का विमोचन पंडित गोविंद बल्लभ पंत, जो उत्तर प्रदेश के पहले मुख्य मंत्री बने द्वारा हुआ । इस पत्रिका का मुख्य उद्देश्य उस समय के राष्ट्रिय आंदोलन में योगदान देना था । उत्तराखंड की जनता को जागरूक करना था ; उनमें एक नयी चेतना , एक नयी उमंग प्रज्ज्वलित करना था । यह विचार , यह शुरुवात की दो घनिष्ठ मित्रों नें – पंडित भैरव दत्त धूलिया एवं श्री भक्त दर्शन जी । जैसा की हम जानते हैं की इन दोनों नें राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रिम भूमिका निभाई । पंडित भैरव दत्त धूलिया ने अपने ‘इति वृत ‘ में इस बात का उल्लेख करते हुए लिखा है :

"  इसी दरमियान भक्तदर्शन और मैंने एक दिन  मदनपुर हमारे घर पर विचार किया की हमें राष्ट्रिय गतिविधि को प्रगति देने के लिए एक पत्र निकालना चाहिए .... मदनपुर में कई नाम पत्र  के तजवीज हुए। योजना भी बनी । उन्हीं दिनों श्री प्रयाग दत्त धसमाना जी की लाटरी मिली थी । भक्त जी ने जहरीखाल आकर  प्रयागदत्त जी तथा हरेन्द्र सिंह जी से बातचीत की । वे पत्र निकाल ने को राज़ी हो गए । तुरंत अढ़ाई - अढ़ाई  हज़ार के शेयर इकट्ठे किए  गए और श्री कुँवर सिंह नेगी मैनेजर ' कालेश्वर प्रैस ' को लेकर एक ' हिमालयन ट्रेडिंग तथा पब्लिशिंग ' कंपनी की स्थापना कर दी गयी । ' कर्मभूमि ' नाम से पत्र की घोषणा भी कर दी गयी । मैं और भक्तदर्शन इसके संपादक बनाए गए "। 

कम समय मैं ही ‘ कर्म भूमि ‘ ने अपनी अच्छी पकड़ बनाली । शुरुआत में करीब 500 प्रतियाँ छपतीं थीं और निशुल्क भेजी जाती थीं । पत्र का काम दोनों मित्र एक समाज सेवा के रूप में करते थे, भैरव दत्त जी लिखते हैं :

 " यों ' कर्मभूमि का आरंभ ही एक संस्था तथा सेवा के रूप में किया गया था । भक्तदर्शन और मेरा दोनों का ओनोरेरियम कुल 50 रुपए माहवार था । दोनों अपने - अपने घरों की सहायता पर ही चलते थे । इस 50 रुपये माहवार ऑनरेरियम मैं 30 रूपय चाय आदि का माहवारी बिल हमें श्री कन्हैयालाल हलवाई का चुका देना होता था । इस तरह काम चलता रहा । ' कर्म भूमि ' घाटे का व्यवसाय था पर दूसरी तरफ पुस्तकों - कागजों की बिक्री से उसकी पूर्ति हो जाया करती थी "।    

‘ कर्मभूमि ‘ के संपादक पद पर दोनों ; श्री भक्त दर्शन और पंडित भैरवदत्त के नाम छपते थे , पर ज्यादा संपादकीय कार्य भैरवदत्त जी ही देखते थे ; क्योंकि उन्हें पटना से प्रकाशित दैनिक ‘ नव शक्ति ‘ के संपादकीय विभाग मैं 1936 के चुनाव प्रचार के समय काम करने का तजुरबा था । इस विषय पर श्री भक्त दर्शन जी ने , पंडित भैरव दत्त जी पर एक लेख ‘ एक ऐतिहासिक युग की समाप्ती ‘ में लिखा है :

" ' कर्मभूमि ' के संपादक पद पर हम दोनों के नाम प्रकाशित होते थे । मैं मुख्यतः मुद्रण एवं व्यवस्था - संबंधी कार्य देखता था , क्योंकि उसका वित्तीय उत्तरदायित्व तो मुझ पर था । धूलियाजी सम्पादन कार्य किया करते थे ,..... हम दोनों नें मिलकर उन दिनों साप्ताहिक ' कर्मभूमि ' को समूचे पर्वतीय क्षेत्र का एक प्रमुख साहित्यिक तथा विचार - प्रधान समाचार पत्र बना दिया था । "           

इस बीच 4 सितंबर 1939 ‘कर्मभूमि’ मे ‘ युद्ध और भारत ‘ शीर्षक से संपादकीय छापा जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य की निंदा की थी , और उसकी नीतियों को युद्ध के लिए जिम्मेदार ठयराया था । इस लेख को पढ़ लेंसडाउन के मिलिटरी महकमे मे एक खलबली मच गई । मिलिटरी प्रशासन ने डेप्युटी कमिश्नर को खबर की और लेख का अङ्ग्रेज़ी तर्जुमा तैयार कराया और जिलाधीश को पौड़ी भिजवा दिया । भैरवदत्त जी को , तीन चार दिन बाद पत्र द्वारा जिलाधीश नेबटेल ने बुलवाया जब वह दौरे पर आए ; और वो ‘ कर्मभूमि ‘ की फाइल लेकर उनसे मिलने गए । सारा लेख पढ़ने के बाद और कुछ सवाल पूछने पश्चात वह बोले की ठीक है ‘ नेहरू और गांधी भी ऐसा लेखते हैं ‘ । पर उन्होने सचेत किया की ‘ डिफेंस ऑफ इंडिया ऐक्ट ‘ अभी लागू नहीं है इसलिए वह उन्हे गिरफ्तार नहीं कर सकते , पर उन्होने सचेत रहने की सलाह दी । नए हालात के मद्दे नज़र और अखबार के डाइरेक्टरों से मतभेद फलस्वरूप , धूलिया जी दिल्ली चले गए और वहाँ ‘ तिबिया कॉलेज ‘ में प्रोफेसर बन गए । ।
धूलियाजी के दिल्ली जाने के फलस्वरूप , विवश होकर भक्त्दर्शंजी ने एक ‘ संपादक – मण्डल ‘ का गठन किया जिसमें धूलियाजी का नाम भी था , पर फिर 04 दिसम्बर 1939 के पश्चात ‘ संपादकीय ‘ छपने बंद कर दिये गए । .पंडित भैरव दत्त जी अपने ‘इति- वृत ‘ मैं लिखते हैं :
” श्री भक्त दर्शन ग्राम सुधार के चेयरमैन पर कार्यवाहिक संपादक ‘कर्मभूमि ‘ वे ही रहे । कुन्दन सिंह गौसाई , कमल सिंह नेगी , ललिता प्रसाद नैथानी और मैं नाम मात्र के संपादक मण्डल मे रहे । सारा काम भक्तदर्शन को ही करना पड़ता था । पीछे नारायण दत्त बहुगुणा और श्रीदेव सुमन को भी संपादक मण्डल में ले लिया गया । इस सारी परिसतिथि तिथि से भक्तदर्शन पर पारिवारिक – आर्थिक दबाव भी काफी पड़ा । “
दूसरा महायुद्ध प्रारम्भ हो चुका था और फिर भारत छोड़ो आंदोलन के फलस्वरूप ‘ कर्मभूमि ‘ के छपने मैं काफी बाधाएँ आयीं । पर फिर भी युद्ध के दौरान ‘ कर्मभूमि ‘ प्रकाशित होता रहा है । इस बात का उल्लेख श्री कुँवर सिंह नेगी ‘ कर्मठ ‘ ने धूलिया जी के ‘ स्मृति ग्रंथ ‘ में लिखा है :

” सन 1942 से 46 तक पत्रिका पर उपर्युक्त शर्तें लगायीं गईं फिर भी पत्रिका जीवित रही जब सन 1947 मैं पंत मिनिस्टरी बनी और उसमें जगमोहन सिंह नेगी राज्य मंत्री उत्तर प्रदेश सरकार सरकार के बने तब बड़ी कठिनाई से मुख्य मंत्री श्री गोविंद बल्लभ पंत जी पंत के आदेश पर प्रैस की और पत्रिका की जमानत वापस हुई “

इस तरह ‘ कर्मभूमि ‘ का संचालन एक ‘संपादक – मण्डल ‘ द्वारा चलता रहा । फरवरी 1945 में जेल से छूटने के पश्चात धूलियाजी ने पुनः भक्तदर्शन जी के साथ मिल ‘ कर्मभूमि ‘ में जुट गए ।

23 जून 1947 से श्री भक्त दर्शन जी के ‘डी पी ओ’ नियुक्त होने के पश्चात श्री भैरव दत्त जी ने फिर से ‘ कर्म भूमि’ का कार्य भर सँभाल लिया । इसके पश्चात 1949 के मध्य से पंडित भैरव दत्त धूलिया जी ने ‘ कर्म भूमि ‘ का स्वतंत्र कार्यभार ले लिया जिसे वह अपने अंतिम समय ; 05 जुलाई 1988 तक करते रहे । सान 1964 को ‘ कर्मभूमि ‘ धूलियाजी के स्वर्गवास के उपरांत उनके पुत्र श्री शरत चन्द्र धूलिया ने ‘कर्म भूमि’ को संभाला और सान 2010 तक इस पत्रिका का सम्पादन करते रहे । सान 2010 में अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गयी, जिसके बाद ‘ कर्मभूमि ‘ नहीं छाप सका ।

हालांकि पंडित भैरव दत्त धूलिया जी ‘ कर्मभूमि के ‘ मुख्य संपादक ‘ थे पर बीच मैं कई वर्षों तक उनका सहयोग उनके भाई श्री योगेश्वर प्रसाद धूलिया , श्री डेबरनी जी एवं उनके पुत्र श्री शरतचंद्र धूलिया करते रहे ।

‘कर्मभूमि ‘ का स्थापना से मोटो रहा है ‘ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ‘- तू कर्म किए जा और फल की इच्छा मत कर ‘ । इसी सिद्धान्त पे वह चलती रही । चाहे वह अंग्रेजों खिलाफ आवाज़ हो , चाहे वह शासन खिलाफ । आज़ादी के बाद भी सच्ची निष्ठा से अपने सिद्धांतों पर चलती रही । इसीलिए धूलियाजी ने आज़ादी के एक वर्ष बाद ही ‘ कॉंग्रेस से इस्तीफा दे दिया था , जिससे की वह खुले मन से पत्र द्वारा सामज की सेवा कर सके । पत्र ने कर्म किया और कभी आर्थिक लाभ की नहीं सोची ।

अखबार ने आज़ादी के पूर्व , अंग्रेजों से लोहा तो लिया ही पर कई सामाजिक कार्यों और जन आंदोलन मेन मुख्य भूमिका अदा की जैसे : ‘ डोला पालकी आंदोलन ‘ , ‘ अशपृशयता – आंदोलन ‘ , शराब बंदी और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन ,

प्रथम ‘ कर्मभूमि ‘ के अंक मैं ही उसके उद्देश्यों का उल्लेख किया है :

” आखिर ‘ कर्मभूमि ‘ को क्यों सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र मैं आना पड़ा है ? यह प्रश्न सब पाठकों के हृदय मैं उठना स्वाभाविक है । इस संबंध मैं इतना ही कहना काफी होगा की जनता जनार्दन की सेवा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है । देश के प्रत्येक पुत्र व पुत्री का यह प्रथम कर्तव्य हो जाता है की वह किसी न किसी रूप मैं उसकी सेवा करे । राजनीतिज्ञ जहां अपनी विलक्षण पटुता , सैनिक जहां अपनी तलवार और भुजा तथा व्यवसायी अपने काला – कौशल से स्वदेश की रक्षा और समृद्धि मैं सहायक होते हैं वह पत्रकार और संपादक अपनी लेखनी के द्वारा जनता मैं जागृति , क्रांति तथा सुधार के भाव भरकर देश – सेवा के भर को सहर्ष अंगीकार करते हैं , इसी स्वांतह सुखाय सार्वजनिक सेवा की प्रेरणा से ‘ कर्मभूमि’ का जन्म हो रहा है “

‘ कर्मभूमि’ सर्वदा अपने उद्देश्यों पर अडिग रही और एक स्वतंत्र , निर्भीक , जनसेवक के रूप में कार्य कर टी रही । यही कारण था की 1949 में पंडित भैरव दत्त धूलिया ने काँग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया , क्योंकि उन्हें महसूस हुआ की काँग्रेस अपनी नीतियों पर अमल नहीं कर रहीं , और वह स्वतंत्र रूप से काँग्रेस सरकार की आलोचना कर सकें .

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