जीवनी – पंडित भैरव दत्त धूलिया – संपादक ‘कर्मभूमि ‘
पंडित भैरव दत्त धूलिया का जन्म 5 गते जेठ संवत 1958 , 18 मई 1901 , ग्राम मदनपुर , ज़िला पौड़ी गढ़वाल के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में हुआ था । आपके पिताजी दो भाई थे ; बड़े भाई पंडित श्री राम जी ज्योतिष शास्त्र के विद्वान एवं एक पारंगत पंडित थे , उनके पिता पंडित हरी दत्त एक कर्मठ व्यक्ति थे और सभी ग्रामीण कार्यों में निपुण थे ; उन्हें लोग ‘ विल्लेज बेरिस्टर ‘ कहते थे । आपकी शुरू के 14 वर्ष तक की पढ़ाई गाँव के ही अपर प्राइमरी बनकंडी स्कूल में हुई । इसके अलावा आपको तीन संस्कृत के पंडितों ने घर पर ही शिक्षा दी । इसके पश्चात वह दुगड्डा , संस्कृत एवं आगे की ओपचारिक पढ़ाई के लिए चले गए । पंडित जी ने अपने ‘ इति वृत ‘ मैं लिखा है :
” प्रथम पंडित सुरेशा नन्द थापली नौसिन के रहने वाले थे । वे करीब एक वर्ष तक हमारे घर पर रहे । उन्होने हमें – शब्द , रूपावली , अमरकोश और लघुकौमुदी पढ़ाना आरंभ किया था । पंचसन्धि तक हम पढ़ चुके थे । राम शब्द की पढ़ाई आरंभ थी , वे छोड़ कर चले गए । बाद मैं दूसरे पंडित त्रिभी राम मसोगा वाले थे । उन्होने हमें द्वितीय सर्ग रघुवंश पढ़ाया , बाद मैं वे भी चले गए । तीसरे पंडित श्री रतीराम ब्रह्मचारी वेदपाठी थे । उन्होने हमें रुद्री , दण्डक, मंत्र संहिता और पितृ संहिता पूरी पढ़ाई । अब ज़रूरत हुई आगे पढ़ने की । बनकंडी स्कूल मैं हमने दर्जा दो तक पढ़ लिया था । “
दुगड्डा मैं रहकर भैरवदत्त जी का संपर्क उस समय के गढ़वाल के कई योग्य व्यक्तियों से हुआ जैसे : पंडित धनिराम शर्मा , पंडित तारादत्त गेरोला – वकील ; पंडित मथुरा प्रसाद नेथानी , डाक्टर जोध सिंह नेगी – तहसीलदार , पंडित धनिराम खेड्डी- ठेकेदार ,सरदार बहादुर नारायण सिंह नेगी पिपली वाले , पंडित गिरिजा दत्त नेथानी – संपादक गढ़वाल समाचार ( उन दिनों ) ये सब बहुत कार्यशील व्यक्ति थे ।
दुगड्डा के छात्र जीवन के समय ही धूलियाजी का विवाह चमेठा ग्राम के पंडित केवल राम जी , जो एक सम्पन्न ठेकेदार थे की पुत्री छवाणी से सम्पन्न हुआ । उस समय उनकी उम्र 14 वर्ष की थी और उनकी स्त्री की 9 वर्ष । विवाह बड़े धूम धाम से सम्पन्न हुआ । धूलिया जी का परिवार पुरोहितों का परिवार था , अच्छी ख़ासी यजमानी थी । विवाह में आतिश बाज़ियाँ थीं ; 16 देसी बाजे वाले , चार जोल के घरेलू बाजे ,तुरही व सिणाई घरेलू शुभ सूचक बजे थे । बारात करीब 600 लोगों की थी । मदनपुर और चमेठा की दूरी करीब 12-14 मील की होगी ; बारात करीब 2 मील की थी । विवाह बहुत अच्छे से सम्पन्न हुआ । पत्नी एक दो दिन मैं वापस माइके चली गयी और फिर तीन वर्ष बाद आयीं । भैरव दत्त जी अपनी पढ़ाई दुगड्डा मैं करते रहे।
1918 मैं भैरवदत्त जी आगे की पढ़ाई के लिए बनारस चले गए । वहाँ रहकर उन्होने , वाराणसी संस्कृत कॉलेज जो क्वीन्स कॉलेज के नाम से जाना जाता था मैं संस्कृत की ‘ प्रथमा ‘ परीक्षा दी और फिर मध्यमा भी उत्तीर्ण की । वह वहाँ कई प्रख्यात पंडतों के संपर्क मैं आए और उनसे संस्कृत मैं शिक्षा ग्रहण की । ‘ मेरा इतिवृत ‘ में वे लिखते हैं :
” बनारस में मैं पहले जाकर अपने गाँव के पंडित गजाधर जी के पास रहा । वे मणिकर्णिका घाट में किसी संगत मैं रहते थे । लघुकौमुदी पढ़ना आरंभ किया । वाराणसी संस्कृत कॉलेज जो क्वीन्स कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध था , उसके द्वारा प्रथमा परीक्षा देने का निश्चय किया । …. मैं योगेश्वर प्रसाद डबराल से ‘ लघुकौमुदी ‘ पढ़ता था । वे एक क्षेत्र में भोजन बनाते थे । मैं पाँच रुपये उन्हें दे देता । वहाँ अतिरिक्त रूप में भोजन भी कर लिया करता था ….”
आपने बनारस में संस्कृत ज्ञान कई प्रख्यात पंडितों के सम्मुख जाकर ग्रहण किया । श्री योगेश्वरजी डबराल , श्री देवनारायण तिवारी , प्रसिद्ध सिद्ध बाबा जो एक लंगोट पहन नंग धड़ंग रहते थे पर सिर्फ लघु कौमुदी पढ़ाते । 1919 मैं धूलियाजी ने ‘ प्रथमा ‘ परीक्षा दी और अच्छे नंबरों मैं उत्तीर्ण हुए ‘ उन्हें श्रेष्टंक पुरस्कार मिला । फिर उन्होने मध्यमा में प्रवेश किया ; श्री देव नारायण तिवारी जी के यहाँ क्वीन्स कॉलेज में नाम लिखा लिया और उनसे सिद्धान्त कौमुदी पढ़ी और उनके जीवन और निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए । बनारस के बारे मैं पंडितजी लिखते हैं :
” बनारस मैं इतने दिनों , यह 1920 का समय होगा , बहुत से पंडितों के संपर्क मैं हम आए , उन दिनों बनारस संस्कृत- अध्ययन का एक बहुत अच्छा क्षेत्र था । विद्यार्थियों के लिए सैकड़ों क्षेत्र खुले थे । अक्सर मारवाड़ी सेठों के । कहीं न कहीं छात्रों को भोजन मिल ही जाता था । बनारस मैं सैकड़ों मठ भी थे । लाल रंग से रंगे रहते थे । उनमें भगुवा वस्त्रधारी साधू तथा विद्यार्थी रहते थे । इसलिए यह बात अक्षरश : विद्यार्थी के लिए सही थी की – ‘क्षेत्रो भोजे माथे निद्रा’ ; क्षेत्रों मैं भोजन करना , मठों मैं सोना । सारे भारतवर्ष के संस्कृत पढ़ने वाले छात्र बनारस आते थे । “
जलियाँवाला बाग कांड के पश्चात , गांधी जी के द्वारा असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ । साथ साथ 01 अगस्त 1920 तिलक दिवस मनाने की घोषणा की और काँग्रेस मैं चवन्नी सदस्य बनाने की प्रक्रिया शुरू । इसी समय धूलिया जी काँग्रेस के सदस्य बने ; वह शायद गढ़वाल के पहले ‘ चवन्नी सदस्य ‘ होगे ।
बनारस मैं गांधी जी का आगमन हुआ ; पहली बार भैरव दत्त धूलिया जी ने उनके दर्शन किए और उनके सादे लिबास से आश्चर्य चकित एवं प्रभावित हो गए । इतनी भीड़ थी की भाषण सुनने हाल में न जा सके पर दूसरे दिन आखबार मैं उनका भाषण पढ़ा । शायद तभी से वो गांधी जी के अनुयाई हो गए । वह लिखते हैं :
” इन्हीं आंदोलनो के दरमियान गांधीजी दुबारा बनारस आए । वे बनारस केंट स्टेशन पर उतरे थे । भीड़ अभूतपूर्व थी । सारा स्टेशन , स्टेशन का पुल, तथा रास्ता आदमियों से भर गया था । …. दूसरे दिन हिन्दू कॉलेज महाराजा बनारस हाल मैं , गांधी जी का व्याख्यान था । छात्र तथा जनता भारी संख्या मे उपस्थित थे । मालवीय जी भी सभा मैं उपस्थित थे । गांधी जी लड़कों को असहयोग का उपदेश देने आए थे । बड़ा कौतुहल पूर्ण दृश्य था । मालवीय जी ने कहा की लड़कों को पढ़ाई नहीं छोड़नी चाहिए । पढ़ाई के साथ साथ देश का काम भी करना चाहिए । इसलिए विश्वविद्यालय बंद नहीं होने चाहिए । महात्मा जी बोले भाइयों अगर आपको किसी का कहना मान कर काम करना हो तो आप मालवीय जी जैसा कहते हैं वैसा करो । परंतु इस समय देश मुसीबत मैं पड़ा है आपको देश के लिए सब कुछ न्योछावर करना है ।इसमें आप अपने अन्तःकरण को टटोलें और जैसे अन्तःकरण की आवाज़ हो वैसा ही करें । देश को दासता से मुक्त करना है । उसमें एक बार सब कुछ न्योछावर करना होगा । रोज़ मीटिंगे होती रहीं और एक दिन 500 लड़कों ने विद्यालय छोड़ने का निश्चय कर लिया । “
इसी समय श्री शिव प्रसाद गुप्त ने 6 लाख रूपय दान किए और ‘ काशी विद्यापीठ ‘आरंभ हुआ , डॉक्टर भगवान दास उसके प्रथम कुल पति नियुक्त हुए । इसके बाद वो बनारस मैं असहयोग आंदोलन मैं शरीक हो गए , और मध्यमा तृतीय खंड की परीक्षा दे रहे थे । सत्याग्रह , विलायती कपड़ों की होली , शराब की दुकानों पर धरना होता था । यहीं उन्होने सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू , डॉक्टर अंसारी के व्याख्यान सुने और उनसे प्रभावित हुए । ऐसे मौके मैं पढ़ाई बहुत कम हो गयी थी ।
गढ़वाल मैं असहयोग आंदोलन श्री मुकंदिलाल बेरिस्टर एवं अनुसुया प्रसाद बहुगुणा ने शुरू किया और भैरव दत्त जी बनारस से उनका साथ देने , गढ़वाल लौट आए । गढ़वाल असहयोग आंदोलन कुली एवं अन्य बेगारी के खिलाफ आंदोलन की सूरत मैं शुरू हुआ । उस समय जब अंग्रेज़ अफसर , हाकिम , पटवारी आदि अपने दौरे पर आते थे
तो सभी हिस्सेदारों को बेगारी मैं योगदान करना पड़ता था । जैसे कुली प्रदान करना , भोजन , चावल , घी , घोड़े की घास । भैरवदत्त जी ने अपने संस्मरण मैं लिखा है :
” पहाड़ी जिलों मैं हाकिमों का सामान ढोने के लिए अङ्ग्रेज़ी हुकूमत द्वारा ‘ कुली बेगार ‘ को एक कानूनी रूप दे दिया था । गाँव का हर हिस्सेदार , जिसका नाम फाट में दर्ज़ होता था एक कुली समझा जाता था । हाकिमों के अलावा पटवारी भी जब पट्टियों मैं घूमते थे और एक गाँव से दूसरे गाँव जाते थे तो उन्हें बेगार मैं भोजन तथा सामान देने के लिए एक कुली दिया जाता था । मालगुज़ार इस व्यवस्था को करता था । कुछ गाओं पर भोजन सामाग्री की बेगार जैसे अच्छी बासमती के चावल , अच्छा घी , आदि था । कुछ गाँव वालों पर दूध की बेगारी होती थी । यदि साहब लोगों का घोड़ा होतो घास तथा दाने की बेगारी होती थी । फिर सामान धोने की बेगारी महत्वपूर्ण होती थी । साहब , सीरस्तेदार , अहलमद , चपरासी , भंगी , सभी के लिए अलग गाँव थे । बेगार का बंटवारा पटवारी करता था । पटवारी की योग्यता का मानदंड उसकी बेगार की व्यवस्था ही थी “।
मुकंदिलाल जी के कहने पर भैरवदत्त जी , श्री भोला दत्त चंडोला और भोला दत्त डबराल नौगाओंखाल ( चोंदकोट ) डेप्युटी कमिश्नर श्री पी मेसन की ‘ बेगार ‘ बंद करने के लिए भेज दिये गए । वहाँ थोकदार केसर सिंह ने पूरी व्यवस्था कर रखी थी । वे बेगारी समाप्त करने मैं सफल हुए । नौगाओंखाल मैं मालगुज़ार लोगों को छोड़कर एक भी व्यक्ति बेगारी के लिए नहीं आया । मेसन अपना सामान छोड़कर वापस पौड़ी आ गए और सरकार को पत्र लिखा ‘ बेगारी ‘ समाप्त करने को । यह गढ़वाल में आंदोलन की पहली जीत थी ।
भैरवदत्त धूलिया जी के पिता केस के सिलसिले में जिलाधीश मेसन की अदालत मैं जाते थे , मेसन जानते थे की वे भैरवदत्त जी के पिता हैं । जिलाधीश ने उन्हें अपने पास बुलाया और बड़े आदर से आग्रह किया की वे अपने पुत्र को समझाएँ की आंदोलन अब बंद करे । घर आकार पिताजी ने धूलियाजी को फटकारा , पर वह नहीं माने ।
असहयोग आंदोलन समाप्त होने पर भैरवदत्त जी बनारस वापस आ गए थे । उसी समय हकीम अजमल खान ने दिल्ली मैं यूनानी तिब्ब का कालेज खोलने का निश्चय किया , वह असहयोग मैं भाग ले चुके थे। कालेज की तीन बड़ी इमारतें बनीं और उसका नाम यूनानी के बजाय ‘ आयुर्वेदिक – यूनानी तिब्बी कालेज ‘ रख दिया और गांधीजी द्वारा उदघाटन हुआ । देश के कोने कोने से अच्छे छात्र व प्रोफेसर वहाँ आए । भैरवदत्त जी ने वही दाखिला लिया । कॉलेज राष्ट्रीय आंदोलन की गतिविधियों का केंद्र था । डॉक्टर अंसारी कालेज के मुख्य सर्जन थे । पंडित मोतीलाल नेहरू , विट्ठल भाई पटेल अपने भाषण देने आते थे , गांधी जी के साथ । खिलाफत आंदोलन शुरू हो चुका था । पहला वर्ष के बाद भैरवदत्त जी हरिद्वार ‘ ऋषिकुल आयुर्वेदिक कॉलेज ‘ आ गए क्योंकि तिबिया कालेज के दो अच्छे प्रोफेसर हरिद्वार आ गए । दो वर्ष उपरांत आप ने ‘आयुर्वेदिक शास्त्री ‘ की परीक्षा प्रथम श्रेणी मैं पास कर्ली ।
1925 के करीब वे फिर बनारस लौटे जहां उन्हें पढ़ाई , ज्ञान की लालसा खींच ले आई । बनारस पहुँच कर फिर संस्कृत पढ़नी शुरू कर दी . असहयोग आंदोलन मैं सक्रीय भूमिका निभाई । अङ्ग्रेज़ी पढ़ना आरंभ किया शुरू से ‘ए बी सी’ से । सन 1930 मैं हाई स्कूल की परीक्षा द्वितीय श्रेणी मैं पास की । आयुर्वेद शास्त्री होने के बावजूद शायद उन्हें लगा की प्रागिति के लिए अङ्ग्रेज़ी ज़रूरी है और उन्होने इंटर मैं एड्मिशन लिया ‘ हिन्दू विश्व- विद्यालय”में और उसके बाद ‘ बी एस सी ‘ फर्मासेटिकल केमिस्ट्री मैं पढ़ी , पर फ़ाइनल इम्तिहान नहीं दे पाये आंदोलन की वजह । इस के बारे मैं वे लिखते हैं :
” संस्कृत मैं विशेष योग्यता के साथ मैं ‘ हिन्दू विश्व विद्यालय ‘ मैं भर्ती हो गया । साइंस , बाइलोजी लेकर ताकि मैं आयुर्वेद को नया रूप दे सकूँ । मैंने इंटर की परीक्षा दी । अङ्ग्रेज़ी कमजोर होने से अन्य विषयों मैं अच्छे नंबर आने पर भी अङ्ग्रेज़ी मैं कम्पार्टमेंट आया । मैंने फर्मासेटिकेल केमिस्ट्री लेकर ‘बी एस सी’ पढ़ना आरंभ किया । साथ साथ आंदोलन मैं भी रहा । पढ़ाई नाम मात्र की होती थी । “
आप अन्य विद्यार्थियों के साथ गढ़वाली लॉज मैं रहते थे । इसी समय आपकी मुलाक़ात श्री राम मनोहर लोहिया से हुई जो भैरवदत्त जी के साथ करीब डेढ़ माह रहे । अपने संस्मरण मैं धूलियाजी लिखते हैं :
” वहाँ बराबर छात्रों की गोष्ठी रविवार को होती थी । एक दिन ईश्वर है या नहीं इस पर श्री लोहिया और मेरा भाषण हुआ । लोहिया इसके समर्थक थे कि ईश्वर का मानना अनावश्यक है और यह बात तथ्य पूर्ण नहीं है । लोहिया की आचार सहिंता भी साम्यवादी ( कमुनिस्ट ) जैसी थी । वे भारतीय आचार सहिंता के आलोचक थे “
सन 1935-36 मैं धूलियाजी काशी विद्यापीठ के कुमार विद्यालय में अध्यापक थे और वो वहाँ करीब एक वर्ष थे । उसके उपरांत वह पटना चले गए श्री देवव्रत शास्त्री के ‘ नव शक्ति ‘ दैनिक अखबार के ‘ संपादकीय विभाग में । उस दौरान पहले देश व्यापी चुनाव हो रहे थे और उसका प्रचार चल रहा था , जिसकी खबर वो अखबार में लिखते थे । नेहरू जी और अन्य राष्ट्रीय नेताओं का भाषण पर टिप्पणी लिखते थे । फिर चुनाव पश्चात अखबार बंद हो गया और वह पुनः बनारस आ गए कुमार विद्यालय मेँ । पर यह तजुरबा काफी कारगर सिद्ध हुआ जब आपने कर्मभूमि का सम्पादन संभाला ।
फिर वह गढ़वाल राष्ट्रीय आंदोलन मैं हिस्सा लेने आ गए । श्री भक्त दर्शन जी और अन्य सदस्यों के साथ मिलकर कांग्रेस संगठन एवं जन संघर्ष को मजबूत करने । वे खुद ‘ आल इंडिया कांग्रेस कमेटी’ मैं थे । कांग्रेस मंत्रिमंडल बन चुका था श्री गोविंद बल्लभ पंत प्रीमिएर बन चुके थे । इस समय के बारे मेँ वह लिखते हैं :
” ग्राम सुधार विभाग खोला गया था । उसका केंप हल्द्वानी मैं लगा था । वहाँ सभी कांग्रेस कार्य कर्ता ग्राम सुधार सेवक की ट्रेनिंग ले रहे थे सर्व श्री राम प्रसाद नौटियाल , बलदेव सिंह आर्य से वहीं मुलाकात हुई । मेरे भी तीन चार व्याख्यान वहाँ रखे गए थे …… भक्तदर्शन का कार्यकाल मंत्री के रूप में बहुत अच्छा था । उन्होने उस समय में कांग्रेस को काफी संगठित तथा सुनियोजित बनाया ……. मैं भी कांग्रेस के काम में संलग्न हो गया । गढ़वाल ज़िले का खूब भ्रमण किया गया “।
इसी बीच आपने और भक्तदर्शन जी ने एक बार मदनपुर में बैठ यह चर्चा की कि समाज में जागृति और चेतना लाने के लिए एक अखबार निकाला जाय जो राष्ट्रीय आंदोलन मेँ सहयोगी हो और नागरिकों को संगठित करे एवं विचारों से अवगत करने में कारगर हो । इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर ‘ कर्मभूमि’ की शुरुआत हुई – बसंत पंचमी 19 फरवरी 1939 के दिन ‘ हिमालय ट्रेडिंग एवं पब्लिशिंग कंपनी ‘ के तहत अखबार आरंभ हुआ ।
शीघ्र ही ‘ कर्मभूमि ‘ तरक्की कर लोगों में उत्साह उजागर करने लगा । इधर द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ हो गया । मुख्यतः सम्पादन का काम भैरवदत्त जी करते थे । वित्त एवं अन्य प्रबंध भक्तदर्शन जी देखते थे । इस समय के बारे मैं भक्त दर्शन जी लिखते हैं :
” हम दोनों ने मिलकर उन दिनों साप्ताहिक ‘ कर्मभूमि ‘ को समूचे पर्वतीय क्षेत्र का एक प्रमुख साप्ताहिक तथा विचार – प्रधान समाचार पत्र बना दिया था “।
4 सितंबर 1939 के ‘ कर्मभूमि ‘ के अंक मैं भैरवदत्त जी ने संपादकीय मैं लिखा जिसका शीर्षक था ‘ महायुद्ध और भारत ‘ इस लेख में विश्व युद्ध का जिम्मेदार ब्रिटिश साम्राज्य को ठहराया और जनता से आहवाहन किया की वो अङ्ग्रेज़ी हुकूमत को बाहर निकालें और युद्ध कोई मदद न करे । लैन्सडाउन क्योंकि कैंट था इसलिए मिलिट्री ने इसे बड़ी गंभीरता से लिया और उस लेख का अङ्ग्रेज़ी तर्जुमा कर डेप्युटी कमिश्नर को भेजा । जब डिप्टी कमिश्नर अपने दौरे पर आया तो उसने धूलियाजी को बुलवाया और वह उनसे मिले । सब कुछ पढ़ने के बाद वो उनसे बोले ठीक है ऐसा तो नेहरू और गांधी भी लिखते हैं । फिर बोले क्योंकि अब तक यहाँ ‘ डिफेंस ऑफ इंडिया ऐक्ट ‘ लागू नहीं हुआ है इसलिए वे उन्हें गिरफ्तार नहीं कर रहे हैं , पर उन्हें एहतियात बरतने को कहा । इसके बाद भी अखबार अपने संपादकीय को लेकर अङ्ग्रेज़ी हुकूमत से लड़ता रहा , परिणाम स्वरूप अखबार पर प्रतिबंद लगे , जुर्माना भर्ना पड़ा । साथ धूलियाजी का डाइरेक्टरों से मतभेद हो गए और इसलिए 1939 के अंत मैं वो ‘ कर्मभूमि ‘ छोड़कर दिल्ली तिबिया कॉलेज चले गए और वहाँ बतौर प्रोफेसर नियुक्त हो गए । भक्तदर्शन जी ने फिर एक संपादक मण्डल का गठन किया और उसमें धूलियाजी भी शामिल थे । टीबीय कॉलेज मैं राष्ट्रिय आंदोलन ज़ोरों से था वहाँ की कांग्रेस की गतिविधियों में हिस्सा लेते रहे । सन 1942 जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो जनता को प्रोत्साहन के लिया , जागरूकता के लिया कई पर्चे छपवाते थे और छात्रों द्वारा वितरित करते थे । दिल्ली मैं भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व अरुणा आसिफ अली कर रही थी और छात्रों का नेतृत्व तिब्बीया कॉलेज से कर रहे थे भैरवदत्त जी । उन्होने इसी दौरान एक पुस्तिका बंबई से छपवाई जिसमें भारत छोड़ो आंदोलन की रूप रेखा थी और आहवाहन था जनता को की अंग्रेजों को बाहर धकेलो । यह पुस्तिका ‘ हनुमान चालीसा ‘के नाम सी वितरित हुई। गढ़वाल में श्री योगेश्वर प्रसाद धूलिया और श्री केशेव चन्द्र धूलिया द्वारा । गढ़वाल के दादा मंडी और उदयपुर इलाके में इसके वितरण से सनसनी मच गई । पर एक जासूस ने पुलिस को खबर कर दी नतीजा यह हुआ की पौड़ी का ‘एस डी एम’ श्री मल्ल एक दर्जन पुलिस कर्मियों को लेकर दिल्ली पहुँच गया और धूलिया जी के करोल बाग निवास स्थान घेर लिया । रात भर तलाशी चलती रही , पूरा घर उलट पलट कर दिया , कई महत्वपूर्ण दस्तावेच बिखर गए और फिर न मिले । पुलिस ‘ हनुमान चालीसा ‘ पुस्तिका की तलाश मैं आई थी वह न मिली पर एक पत्र अरुणा आसिफ अली का और कुछ और दस्तावेच के आधार पर मुकदमा कोटद्वार में चला और धूलिया जी को 7 साल की सज़ा हुई – सरकार का तख़्ता पलटने की सजिस के आरोप में। पहले वह बरेली जेल रहे और बाद में बी ग्रेड का दर्जा मिलने पर मेरठ भेजे गए, जेल मैं धूलिया जी ने करीब दो दर्जन व्यक्तियों को गीता पढ़ाई । फरवरी 1945 को जेल से छूटने के बाद वह गढ़वाल लौटे और कर्मभूमि और राष्ट्रीय आंदोलन में जुट गए ।
आज़ादी मिलने पर भक्तदर्शन जी सरकारी नियुक्ति पर चले गए और कर्मभूमि का सम्पूर्ण काम धूलियाजी करने लगे । 1949 के मध्य में आपने स्वतंत्र रूप से ‘ कर्मभूमि’ का काम ले लिया जिसे निष्ठा पूर्ण वह 1988 तक चलते रहे । इस कार्य में उनका हाथ उनके छोटे भाई श्री योगेश्वर प्रसाद धूलिया एवं छोटे पुत्र श्री शरत चन्द्र धूलिया परस्पर करते रहे ।
आज़ादी मिलने के बाद सरकार की नीतियों से असहमत होकर उन्होने 1948 में कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया । ‘ कर्म भूमि ‘ निरंतर निर्भीक , स्वतंत्र , बुद्धिजीव पत्रकारिता के लिए जाने जाना लगा । पहाड़ में लोग साप्ताहिक ‘ कर्मभूमि’ का इंतज़ार करते थे गावों में जिनकी आवाज़ वह बन गया था । गढ़वाल रेजीमेंट के सिपाही अपनी यूनिट में यह पत्रिका मँगवाते थे ताकि गढ़वाल और घर की खबर मिलती रहे । सामाजिक और राजनेतिक समाचार ही नहीं बल्कि, अंतर्राष्ट्रीय समाचार , साहित्यिक लेख और रचनाएँ ‘कर्म भूमि ‘ में बराबर छपती थीं और धूलिया जी ने कई कविओं और लेखकों को प्रोत्साहित किया ।
समय और साधना के साथ ‘संपादकजी’ , ‘कर्मभूमि’ एवं ‘भैरवदत्त धूलिया ‘ एक पर्यायवाची बन गए थे । ज़्यादातर लोग उन्हें ‘ संपादकजी ‘ के नाम से संबोधित करते थे । यह उनकी सबसे बड़ी कमाई , उपलब्धि थी । उन्होने अपने बाकी सहयोगियों की तरह किसी सरकारी पद की न कामना की न कोशिश की ; राष्ट्रीय आंदोलन के अपने त्याग को वह एक कर्तव्य मानते थे और ‘ कर्मभूमि ‘ के जरिये वह उसे आगे पूरा कर रहे थे । देश मैं कांग्रेस की नीतियों और सरकार से असंतुष्ट होकर वे 1962 एवं 1967 का विधान सभा चुनाव लड़ा 1962 मैं हारे और 1967 मैं विजयी रहे । वे निर्दलीय लड़े और मुख्य मंत्री एवं अन्य पार्टियों के निवेदन के बावजूद कोई मंत्री पद स्वीकार नहीं किया । संविद सरकार के असंतुष्ट काम से दुखी होकर उन्होने करीब 7 महीनों मैं ही त्यागपत्र दे दिया । कुछ दिन बाद सरकार खुद गिर गयी ।
उसके बाद वह अंतिम क्षण तक पत्रकारिता की सेवा करते रहे । उनके ‘ संपादकीय ‘ हर समय बड़े चाव से पढे जाते और वह मुश्किलों के साथ अपने शोध कर नए नए विषयों पर लिखते रहते । उनके लिखे ‘ संपादकीय ‘ एक अमूल्य धरोहर हैं , एक आईना है हमारे समाज का , एक एतिहासिक दस्तावेच है ।
धूलियाजी एक कर्मयोगी तो थे ही , वह एक सच्चे , सरल , निश्चल , ज्ञानी पुरुष थे जिनसे हर उम्र , हर तपके , हर पार्टी, हर सूबे का व्यक्ति मिलना चाहता था । जब भी कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति प्रदेश , केंद्र या भारत के किसी कोने से गढ़वाल आता तो ‘ संपादकजी ‘ से ज़रूर मिलता – नेता , सरकारी अफसर , कवि , कलाकार , शिक्षक , सब ! वह ‘ सत्संग ‘ मैं विश्वास रखते थे और खुद भी नए नए लोगों से मिलकर ज्ञानवर्धन करना चाहते थे ।
धूलिया जी का जीवन संघर्ष मय तो था ही ; उन्हें हर पड़ाव पर निजी दुख का सामना करना पड़ा – जेल में जब वे थे तो उनकी पत्नी , पुत्र , भाई गुज़र गए । जेल से छूटने पर उनके पिता नहीं रहे । वृदधा अवस्था मेँ उनके ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु हो गई । यह सब चोट सह कर वे अपनी पत्रकारिता करते रहे ।
अगर हम ‘ संपादकजी ‘ के जीवन का विश्लेषण करें तो कुछ विशेष और अनोखी उपलब्धियां दीखतीं हैं : जैसे शिक्षा ; धूलिया जी का एक लंबा समय अपने ज्ञान वर्धन और शिक्षा मेँ बीता जो आगे चलकर उनके लेखन एवं जीवन मैं अत्यंत सहयोगी सिद्ध हुआ। वह समय आंदोलनों का था शिक्षा मैं रुकावट आती रहीं पर भी उन्होने त्रिमुखी शिक्षा ग्रहण की ; प्रथम अपने घर पर पारंपरिक संस्कृत और पुरोहितों की शिक्षा और कार्य पद्धति तीन पंडितों द्वारा ; दूसरा भारतीय पद्धति की संस्कृत शिक्षा और आयुर्वेद शास्त्री की उपाधि ; तीसरा औपचारिक अङ्ग्रेज़ी शिक्षा नीति की शिक्षा जिसमें उन्होने अङ्ग्रेज़ी ही नहीं बल्कि साइंस , बाइलोजी , केमिस्ट्री , फर्मासीटिकल की पढ़ाई की ।
फिर भैरवदत्त जी का राष्ट्रीय आंदोलन मैं जो भागीदारी थी वह सिर्फ गढ़वाल ज़िले तक सीमित न थी । वह जहां रहे वहाँ सक्रिय रहे ; चाहे पहले बनारस मैं असहयोग आंदोलन मैं , बाद मैं गढ़वाल मैं संघर्ष , उसके पश्चात फिर दिल्ली के तिबिया कोलेज और पटना मैं सम्पादन कार्य। भारत छोड़ो आंदोलन मैं वह केंद्र स्तर पर छात्रों का नेतृत्व व संचालन कर रहे थे । अरुणा आसिफ अली और अन्य केंद्रीय लीडर उनके संपर्क मैं थे । दिल्ली से वह गढ़वाल को प्रेरित कर रहे थे अपने पर्चों द्वारा । यह समय , तजुरबा उनको एक अलग और अनोखा व्यक्तित्व देता है । बाद मैं उनके लेख पार्लियामेंट मैं चर्चित होते थे तिब्बत और चीन और अन्य कई विषयों पर । सब उनकी बात सुनते थे और तबज्जो देते थे । कई सदस्यों ने उनके साथ संघर्ष किया था ।
धूलिया जी की विरासत ;अपने जीवन और कर्मभूमि के जरिये एक धरोहर है जिसे हमें सँजो कर रखना है .