संपादकीय

अखबार मतलब कर्मभूमि ! – उमाकांत लखेड़ा

“ये भैजी तुमार घर क्वी पुराणु कर्मभूमि पड्यूं ह्वाल क्या, हमार यख क्वी मेहमान आईं छन, उ लोग मांगणे छन।” जाहिर है कि कोई मेहमान लिखा पढ़ा घर आ जाए तो उसकी पहली मांग होती थी क्या इस गांव में किसी के घर कर्मभूमि आता है तो उसकी सबसे पहले मांग होती थी कि नया पुराना कोई भी कर्मभूमि है तो मंगवा दीजिए।

कर्मभूमि मात्र छह आठ पन्नों का अखबार नहीं। एक जाना माना ब्रांड था। कई लोगों ने कर्मभूमि के अलावा दूसरे अखबार को देखा तक न था। इसलिए कर्मभूमि का मतलब अखबार और किसी अखबार को भी कर्मभूमि ही मानते थे। जैसे कि आजकल टुथ पेस्ट कोई भी हो लोग उसको कॉलगेट बोलते हैं। जैसे कि “ठंडा मतलब कोकाकोला” के विज्ञापन का नारा लोगों में दिल में बैठ गया। पुराने दौर में अखबार मतलब कर्मभूमि, का जुननू इससे कमतर न था।

कर्मभूमि साप्ताहिक दूरदराज तक डाक से ही पहुंचता था। पहाड़ व उत्तर प्रदेश में बीते सप्ताह की ताजातरीन खबरों के लिए फोल्ड किए अखबार को जल्द से जल्द खोलकर पढ़ने की हड़बड़ी हमें खूब याद है। 1960 व 1970 के दशक में कर्मभूमि का जादू इस कदर था कि उसमें लिखी हर लाईन पत्थर की लकीर मान ली जाती थी। आम लिखने पढ़ने वालों में सप्ताहभर बेसब्री की प्रतीक्षा ऐसी कि मुफ्त में कर्मभूमि पढ़ने वाले पोस्टमैन से पता कर लेते थे कि आज गांव में कर्मभूमि आ चुका है। खुसरपुसर शुरू हो जाती। गांव में केवल हमारे घर कई वर्षों तक कर्मभूमि डाक से आता रहा। हम उसे पढ़ते, देखते बड़े हुए।

शायद हिंदी के अक्षर ज्ञान के लिए स्कूली किताबों से ज्यादा कर्मभूमि ही प्रथम पाठशाला थी। हेडलाईन पढ़कर एक पूरी पीढ़ी का हिंदी ज्ञान के विस्तार, सूचनाएं और बाहरी दुनिया की घटनाओं से सामना होता था।

उत्तराखंड बनेगा, इसकी दूर दर तक कोई कल्पना तक नहीं करता था। यह अंचल उत्तर प्रदेश का ही एक अभिन्न हिस्सा था। केवल पहाड़ों की खबरें और उत्तर प्रदेश सरकार की ऐसी बड़ी घोषणाएं, जिनका पर्वतीय अचंल से कोई ताल्लुक होता, कर्मभूमि में मुख्य लीड या प्रमुखता से पहले पृष्ठ पर स्थान पाती थी। इसके अलावा भीतर के पन्नों में पहाड़ों के गहरे सरोकारों की खबरें व निर्भिकता से लिखे विचार, विश्लेषण ऐसे कि जब तक कोई एक सांस में पूरा न पढ़ ले, तब तक चैन न पड़ता।

भले ही कोई दिल्ली से कोई नौकरी पेशा गांव का आदमी घर आए और साथ में दिल्ली से लाया अखबार ही कोटद्वार से पहाड़ जाने वाली बस में पढ़ रहा हो तो पीछे से कोई आवाज जरूर देगा- “भैजी तै कर्मभूमि कु एक पेज पिछने पकड़ै देन जरा।” दिल्ली से आने वाला जवाब देता, “भाई साहब ये कर्मभूमि नहीं। दिल्ली का दूसरा और कोई फलां अखबार है” तो लोग यह बोलने में देर नहीं लगाते कि “भैजी यख त हम लोकू कूण कर्मभूमि ही अखबार च। बाकी अखबारु क तक हम नाम भी नी जाणदा जी। हमार इलाकेक सार्री खबर त कर्मभूमि मा ही छपदन।”

कर्मभूमि सप्ताहिक कई दशकों तक कोटद्वार से प्रकाशित होता रहा। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व उत्तर प्रदेश विधानसभा में विधायक रहे लोकप्रिय नेता भैरव दत्त धूलिया के व्यक्तित्व की पहचान थी कर्मभूमि। भैरवदत्तजी अदभुत व्यक्तित्व के धनी थे। कोई गरीब या आम आदमी उनके पास कार्यालय में आ जाए तो एकदम अपनेपन से गढ़वाली में उसका हाल पूछना। पूरी बात सुनना। वे वाकई में जन नेता थे। कांग्रेस के प्रचंड प्रभाव वाले क्षेत्र से उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते।

कर्मभूमि के प्रकाशन को भैरवदत्त जी के निधन के बाद उनके जयेष्ठ पुत्र दिवंगत शरतचंद्र धूलिया ने विरासत के तौर पर आगे बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अस्सी व नब्बे के दशक में वक्त ने करवट बदली। नई सूचना तकनीकों के साथ प्रिंट मीडिया के नए कलेवर व केबल टीवी आने के बाद आंचलिक पत्रकारिता का जो हश्र हुआ उसका शिकार कर्मभूमि भी हुआ।

कर्मभूमि के सबसे मजबूत पाठक मेरे पिताजी श्री कन्हैया लाल लखेड़ा जी भी थे। गांव आकर पिता जी हर बार भैरव दत्त धूलिया जी से अपनी मुलाकात की भी चर्चा करते। कोटद्वार के रास्ते देहरादून व गांव आते-जाते तो कर्मभूमि का वार्षिक चंदा जमा करना नहीं भूलते थे। हर सप्ताह डाक से संभवतया 1968-70 में पांच नए पैसे का डाक टिकट लगा यह साप्ताहिक अखबार हमें पोस्टमैन लाकर देता था।

कई ऐसे भी मौके आए जब कर्मभूमि में कोई ऐसी खबर होती जो बेहद अहम व सनसनीखेज होती तो आम तौर पर वह अखबार हम तक नहीं पहुंचता था। कोटद्वार गांव के बीच डाकघर दोगड्डा, भृगुखाल, सरा व बाद में बनचूरी उप डाकघर के स्टाफ के जरिए वह कई बार गायब होता। कई मौकों पर कर्मभूमि प्रेमी लोग रास्ते में डाकिए से अखबार एक दो दिन अपने पास रख लेते थे। कई बार तो फटा, भीगा हुआ, मुड़ा तुड़ा मैला कर्मभूमि बहुत दिन बाद मिलता। गांव के कई बुजुर्ग जिनकी आंख कमजोर होती या कम पढ़े लिखे होते, मैं उन्हें अखबार में लिखे प्रमुख समाचार जोर से पढ़कर सुनाता। लोग बड़े चाव से कर्मभूमि में लिखी खबरें सुना करते थे।

अधिकतर लोगों के पास रेडियो ना होने के कारण कई सप्ताह बाद पता लगता कि उनके प्रदेश का नया मुख्यमंत्री कौन बना है। मुझे याद है कि 1973 में हेमवती नंदन बहुगुणा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। गढ़वाल में पैदा हुए किसी सपूत को इलाहाबाद के लोगों ने अपना नेता बनाकर हमारे इतने बड़े प्रांत का मुख्यमंत्री बनवा दिया। इस तरह की गरमागरम चर्चाएं होती थीं। गढ़वाल के किस गांव में जन्मा बालक जो पहाड़ में पैदल स्कूल जाता था आज सबका हीरो है। इस तरह की कई रोचक जानकारियां बहुगुणा जी के बारे में विस्तार से बाद में कर्मभूमि से ही मिलतीं।

पहाड़ों से उत्तर प्रदेश कैबिनेट में कौन-कौन मंत्री बने हैं। बहुगुणा जी के मुख्यमंत्री कार्यकाल में पर्वतीय विकास मंत्रालय, गढ़वाल व कुमाऊं विश्व विद्यालयों की स्थापना, सीमांत क्षेत्रों में संचार व डाकघरों का जाल, जंगलों का कटान रोकने को वन अधिनियम जैसा विशेष केंद्रीय कानून जैसे दर्जनों मामलों पर कर्मभूमि ही सूचनाओं व चिंतन का मंच रहा।

कोई बड़ा सड़क हादसा पहाड़ों में कहीं हो जाए, आपदा जल प्रलय की घटनाएं हो जाएं तो आने जाने वालों की मुहं जुबानी, सुनी सुनाई बातों पर निर्भर रहना पड़ता था। सुदूर पहाड़ों में स्कूल, अस्पताल, रोजगार, खेती बाड़ी की मुश्किलें, सड़क व मोटरमार्गों की मांग, जंगली जानवरों के हमलों की कई वीभत्स घटनाओं के बाबत सूचनाएं पहुंचाने का दायित्व कर्मभूमि के ही कंधों पर होता। पर्यावरण के सवालों, चिपको से लेकर शराब नहीं रोजगार दो और उसके बाद उत्तराखंड आंदोलन व दुर्गम क्षेत्रों में सड़क दुर्घटनाओं की बड़ी छोटी खबरें में भी कई-कई सप्ताह बाद कर्मभूमि में पढ़ने को ही मिलतीं।

साठ, सत्तर के बाद की आधी सदी में तब से लेकर अब तक पहाड़ की नदियों व गाड-गेदेरों मे न जाने कितना पानी बह चुका। “आज दो अभी दो, उत्तराखंड राज दो” के आक्रामक नारे के बाद तो राज्य भी बन गया लेकिन वे सारे सवाल जिन जनांकांक्षाओं की बलिवेदी पर यह पर्वतीय राज्य बना वे सवाल जहां के तहां हैं। उम्मीदें बंधी हैं कि सवालों पर कुंद पड़ी इन बहस-मुहाबसों का अब कर्मभूमि के नए अवतार के जरिए पुर्नजागरण होगा।

  • उमाकांत लखेड़ा (लेखक गढ़वाल में जन्मे पत्रकार व राजनीतिक टिप्पणीकार हैं। वे दैनिक हिंदुस्तान, नई दिल्ली में नेशनल ब्यूरो चीफ़ रह चुके हैं।)

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