उत्तराखण्ड के गाँवों में शिक्षा – इरा कुकरेती
देवभूमि जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है पुरातन काल से ही आध्यात्म व आदर्श शिक्षा का गढ़ रहा है। यहाँ सदैव से शिक्षक व विद्यार्थी का रिश्ता परस्पर स्नेह व आदर से बंधा होता था। उत्तराखण्ड में देश के कई प्रतिश्ठित विद्यालय हैं, जहाँ देश से ही नहीं अपितु विदेश से भी छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते हैं।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद दुर्गम क्षेत्रों में भी शिक्षा के प्रसार के लिये सरकार ने स्कूल खोले, लगभग हर गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय व हर दो प्राथमिक विद्यालयों के बीच में एक माध्यमिक विद्यालय तथा हर 10 किमी0 में एक इन्टर कॉलेज खोला गया, इसके अलावा सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालय भी शिक्षा के प्रचार-प्रसार में अपनी भूमिका निभा रहें हैं, लेकिन इन निजी विद्यालयों को शिक्षक उपलब्ध न होने के कारण शहरी इलाकों से बहुत कम वेतनमान पर शिक्षक नियुक्त किये जाते है।
अगर हम गढ़वाल के परिपेक्ष्य में बात करें तो दषकों से गढ़वाल में शिक्षा का महत्व वहाँ की विषम परिस्थितियों के बावजूद रहा है। विद्यार्थी 9-10 किमी दूर से भी शिक्षा ग्रहण करने, पैदल आया करते थे। कई विद्यालयों में तो विद्यार्थी अपना राशन-पानी लेकर विद्यालयों में ही, प्राचीन आश्रमों के समान अपने गुरू के साथ रहते, खाना बनाते और गुरू के प्रति असीम श्रद्धा भाव रखते। यह वृतान्त लिखते हुये मुझे गुरू संदीपनी ऋषि के आश्रम में कृष्ण-सुदामा की कहानियों का ध्यान मन को पुलकित कर रहा है। हमारी पिछली पीढ़ी में 60-70 वर्श पहले गाँव सड़क, सुविधाओं के अभाव में क्या छात्र उन्नति नहीं करते थे? लेकिन हमारे पास कर्इ्र ऐसे उदाहरण है जहाँ विकट परिस्थितियों में रह कर इन्जीनियर और अधिकारी तक बने है।
लेकिन प्रश्न उठता है कि अब जबकि पहाड़ों में जगह-जगह स्कूल खुल गये हैं, भले ही उनमें विद्यार्थी कम हो, शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। इसके कई कारण जो मेरी समझ में आते है। अंग्रेजी शिक्षा की चाह में पहाड़ों से पलायन के चलते उत्तराखण्ड के कई विद्यालय खाली हो चुके है, और कई विद्यालय ऐसे हैं जहाँ विद्यार्थियों की संख्या बहुत ही कम है। दूसरा कारण शिक्षकों में उन आदर्षों का अभाव जो कुछ दषक पूर्व था तब शिक्षक अपने आप को आदर्ष शिक्षक बनाये रखने के लिये खुद के सिद्धान्तों में बांधे रखते थे। उन शिक्षकों में त्याग व समाज हित की भावना कूट-कूट कर भरी होती थी, और विद्यार्थी भी अपने आदर्ष अध्यापकों के प्रति आजीवन ऋणी रहते थे।
मेरे पति गाँव में बच्चों की शिक्षा के बारे में अक्सर चिन्तन करते हैं। अपने कुछ साथियों के साथ, जो गढ़वाल के बच्चों को किस तरह से, वहीं के माहौल में समयानुसार उन्नति करा सकें, की सोच रखते हैं, भिन्न-भिन्न गाँवों के विद्यालयों में गये, उन्होंने वहाँ के विद्यार्थियों के साथ, वार्तालाप किया, उनकी समस्याओं, आकांक्षाओं के बारे में विचार-विमर्ष किया। कुछ समस्यायें ऐसी थी जिनका निवारण सरकार के स्तर पर ही हो सकता है। जैसे एक बालिका विद्यालय में 18 विद्यार्थियों के लिये 12 अध्यापिकायें नियुक्त थी। व कहीं 100 के ऊपर 2 या तीन। इस तरह का विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात का लाभ बच्चों को कैसे मिल सकता है।
उत्तराखण्ड के नौनिहालों में प्रतिभा की कमी नहीं है। यहाँ की संतानों को अनुवांशिक कोड, महान ऋशियों से उत्तराधिकार में मिला है। महर्शि कण्व, द्रोण, वेदव्यास जैसे महान ऋशियों का यहाँ से सम्बन्ध रहा है। कौरवों और पांडवों को गुरू द्रोण ने यहीं धर्नुविद्या की शिक्षा दी थी यहाँ के नौनिहालों को शिक्षा के सही व पर्याप्त अवसर मिलें तो वह देश में ही नहीं विदेश में भी अपनी कर्मठता और काम के प्रति ईमानदारी का लोहा मनवा सकते है। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। आज गढ़वाल से एन0 एस0 ए0 अजित डोभाल, जनरल विपिन रावत, अनिल धस्माना, एडमिरल जोषी अपने-अपने क्षेत्र के षीर्श पद तक पहुँच चुके हैं। क्योंकि उन्हें शिक्षा के पर्याप्त अवसर मिले हैं।
नैतिक मूल्यों के ह्रास ने इस समस्या को, बहुत हद तक बढ़ाया है। कुछ वर्श पूर्व हमारे स्कूल में एक सज्जन से मुलाकात हुयी। वे फौज में 20 साल सेवा करके, रिटायरमेन्ट ले कर अपने घर देहरादून आ गये। बी0 एड किया और सरकारी स्कूल की नौकरी कर ली। उनकी पहली पोस्टिंग पहाड़ में, किसी सुदूर गाँव में हो गयी। मैंने जिज्ञासावष पूछा “आपके बच्चे यहाँ षहर के प्रतिश्ठित स्कूल में पढ़ रहें हैं और आप यहाँ अपना व्यवसाय भी चला रहें हैं तो आप कैसे इन दोनों में सामन्जस्य बिठायेंगे” वे मुस्कुरा कर बोले “मैडम वहाँ तो कभी-कभी जाना होता है हम वहाँ दो शिक्षक है बारी-बारी से चले जाते है। इतने सुदूर गाँव में कोई चेकिंग तो होती नहीं है” उनके इस उत्तर ने मेरे हृदय को विक्षोभ, दुख के साथ आष्चर्य से भर दिया, कैसे इतनी आसानी से इन्होंने पहाड़ के बच्चों के भविश्य की सम्भावनाओं को ताक पर रख दिया। “गुर्रू ब्रह्मा, गुर्रू विश्णु, गुर्रू देवो महेष्वर! गुर्रू साक्षात् परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे नमः” क्या ऐसे शिक्षकों के लिये लिखा गया था?
एक अन्य कारण जो पहाड़ के बच्चों के पठन-पाठन में बाधक है, वह उनके माता-पिता, अभिभावकों में जागरूकता का अभाव। जिन दिनों खेतों में और अधिक हाथों की आवष्यकता होती है, माता-पिता को पढ़ाई से ज्यादा, घर का काम या नरेगा से कुछ पैसे कमाना ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। इस परिदृष्य में बच्चों का भविश्य क्या हो सकता है, यह हम समझ सकते हैं।
उत्तराखण्ड के गाँवों की भौगोलिक स्थिति, अन्य राज्यों से बिल्कुल भिन्न होने के कारण यहाँ की समस्यायें भी भिन्न है। लगभग हर गाँव में प्राथमिक विद्यालय हैं, लेकिन इनमें 10-12 या किसी-किसी में तो 4-5 ही विद्यार्थी है, और यदि इण्टरमीडिएट तक के विद्यालयों की बात की जाये तो उनमें भी विद्यार्थियों की संख्या इतनी कम है कि उनमें 10-12 अध्यापक भी सरकारी खजाने पर बोझ के सिवा कुछ नहीं है।
हर गाँव में प्राथमिक विद्यालय न होकर 4-5 गाँवों के बीच में एक विद्यालय होना चाहिए, जिससे विद्यार्थी अध्यापक का अनुपात संतुलित हो। इण्टरमीडिएट तक के बालिका विद्यालयों में बहुत कम छात्रायें होने पर उन विद्यालयों को सह-शिक्षा के विद्यालयों में परिवर्तित कर दिया जाये, ताकि उनमें विद्यार्थियों की संख्या कम से कम इतनी तो हो कि उन्हें हर विशय के प्राध्यापक मिल सकें।
केन्द्र सरकार ने हाल ही में शिक्षा नीति व व्यवस्था के बुनियादी ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये हैं, अब 10:2:3 की जगह 5:3:3:3:4 की व्यवस्था की गयी है। तथा स्कूलों में स्वरोजगारपरक शिक्षा को शामिल करने का निर्णय लिया गया है। जो एक स्वागत योग्य कदम है, लेकिन इससे हमारे पहाड़ों के गाँवों से पलायन रोकने में व वहाँ के विद्यार्थियों को इसका कितना लाभ मिलेगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ की आधारित संरचना की उपलब्धता, शिक्षकों की सही अनुपात में नियुक्ति व अभिभावकों में शिक्षा के प्रति कितनी जागरूकता है। उम्मीद है कि सरकार इसमें पहाड़ की दुर्गम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये प्रभावी क्रियान्वयन के लिये ठोस कदम उठायेगी।
(लेखिका – इरा कुकरेती)